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हर साल दिवाली इसी तरह आया करती है……गर्माहट धीरे-धीरे काम हो कर ख़त्म होने के कगार पर इजाजत लेना चाहती है…….दिल भर आया करता है हर बार इन दिनों ….जब थोड़ी-थोड़ी सिहरन शुरू हो जाया करती है……..याद आने लगती हैं ….वो सुबहें जब जागने का कोई निश्चित समय नहीं हुआ करता था …….कई बार तो चाय भी बिस्तर पर मिल जाया करती थी………..कमी थी पर भरे हुए थे हम……
दबे-छुपे कोनों की सफाई जैसे दिल में बसी सारी कड़वाहटें झाड़ देता था………रौशनी सिर्फ आँगन में नहीं हर अँधेरे को दूर करती थी…..
मिट्टी की ढिबरियाँ बगल के आँगन से आती थीं….उनको बदले में अनाज और कुछ पैसे ही मिलते थे…..सब याद है मुझको …..कभी-कभी तो बैठे बिठाये किसी दूसरी दुनिया में चली जाया करती हूँ…….याद आ जाती है वो आखिरी दिवाली नैहर की…कितनी मिन्नत कर के तो बुलाया था तुम्हें मैंने……और आते ही मुँह फुला लिया था तुमने ……… उसके बाद तो न ससुराल की रही मैं …न पीहर की…..सब लूट लिया उन लोगों ने मेरा..मेरा घर …मेरा चैन….और रही-सही कसर तुमने पूरी कर दी…….मेरी उपेक्षा कर ….मुझे नीचा दिखा कर…
और मैं तो खुद अपनी मर्ज़ी की मालिक हूँ…..छोड़ दिया तो छोड़ दिया ……….
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